Thursday, June 17, 2010

व्यवहारिक परिवर्तन

उपयुक्त परिवर्तनों के कारण किशोरों के व्यवहार में निम्न लक्षण उजागर होते हैं -

अ)   स्वतन्त्रता
शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिपक्वता की प्रक्रिया से गुजरते हुए किशोरों में स्वतंत्र रहने की प्रवृति जाग्रत होती है। जिससे वे अपने आप को प्रौढ़ समाज से दूर रखना प्रारंभ करते हैं।

आधुनिक युग का किशोरे अलग रूप से ही अपनी संस्कृति का निर्माण करना चाहता है जिसे उप संस्कृति का नाम दिया जा सकता है। यह उप-संस्कृति धीरे-धीरे समाज में विधमान मूल संस्कृति को प्रभावित करती है।

ब)   पहचान
किशोर हर स्तर पर अपनी अलग पहचान बनाने केलिए संघर्ष करते हैं। वे अपनी पहचान बनाए रखें के लिए लिंग भेद तथा अपने को अन्य से उच्च एवं योग्य दर्शाने के प्रयास में होते हैं।

स)   धनिष्ठता
किशोरावस्था के दौरान कुछ आधारभूत परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन अधिकतर यौन संबंधों के क्षेत्र के होते हैं। किशोरों में अचानक विपरीत लिंग के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। वे आकर्षण एवं प्रेम के मध्य अंतर स्पष्ट नहीं कर पाते और मात्र शारीरिक आनंद एवं संतुष्टि के लिए सदैव भटके रहते हैं।

समवय समूहों पर निर्भरता
अपनी पहचान व स्वतन्त्रा को बनाए रखने के लिए, किशोरे अपने माता-पिता के भावनात्मक बंधनों को त्याग कर अपने मित्रों के साध ही रहना पसंद करते हैं। परन्तु समाज लड़के-लड़कियों के स्वतन्त्र मेलजोल को स्वीकृत नहीं करता। किशोरों का प्रत्येक वर्ग अपने लिंग से सम्बंधित एक अलग समूह बनाकर अलग में रहना पसंद करता है। इस तरह की गतिविधियाँ उन्हें समवाय समूहों पर निर्भर रहने के लिए प्रोत्साहित करती है। यहीं से ही वे अपने परिवर्तित व्यवहार के प्रति समर्थन एवं स्वीकृति प्राप्त करते हैं।

बुद्धिमता
बौद्धिक क्षमता का विकास भी किशोरों के व्यवहार से प्रदर्शित होता है। उनमें तथ्यों पर आधारित सोच-समझ व तर्कशील निर्णय लेने की क्षमता उत्पन्न होती है। ये सभी कारण उनमें आत्मानुभूति को विकास करते हैं।

विकास की अवस्थाएं
किशोरावस्था के तीन चरण हैं -
क)      पूर्व किशोरावस्था
ख)      मूल किशोरावस्था
ग)       किशोरावस्था का अंतिम चरण

यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि विकास निर्धारित नियमानुसार ही नहीं होता इसी कारण तीनों चरण एक-दूसरे की सीमाओं का उल्लंघन करते हैं।

क)      पूर्व किशोरावस्था
विकास की यह अवस्था किशोरावस्था का प्रारंभिक चरण है। पूर्व किशोरावस्था के इस चरण में शारीरिक विकास अचानक एवं झलकता है। यह परिवर्तन भिन्न किशोरों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इस समय टांगों और भुजाओं की लम्बी हड्डियों का विकास तीव्रता से होता है। किशोर की लम्बाई 8 से 9 इंच तक प्रतिवर्ष बढ़ सकती है। लिंग-भेद के कारण लम्बाई अधिक बढ़ती है। इस समय किशोर तीव्र सामाजिक विकास और अपने में गतिशील यौन विकास का अनुभव  करते हैं। वे अपने समवय समूहों में जाने की चेष्टा करते हैं। इस स्तर पर प्यारे दोस्तों का ही महत्व रह जाता है। किशोर अपने-अपने लिंग से सम्बंधित समूहों का निर्माण करते हैं। यौन सम्बंधित सोच एवं यौन प्रदर्शन इस स्तर पर प्रारंभ हो जाता है। कुछ अभिभावक इस सामान्य वयवहार को स्वीकृत नहीं करते और किशोरों को दोषी ठहराते हैं। विकास के इस चरण में शारीरिक परिवर्तन से किशोर प्राय: घबरा जाते हैं। वे सामाजिक- सांस्कृतिक सीमाओं और यौन इच्छाओं के मध्य संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं।

ख)      मूल किशोरावस्था
किशोरावस्था का यह चरण शारीरिक, भावनात्मक और बौधिक क्षमताओं के विकास को दर्शाता है। इस चरण में यौन लक्षणों का विकास जारी रहता है तथा प्रजनन अंग, शुक्राणु उत्पन्न करने में सक्षम हो जाते हैं। इस समय किशोर अपने को अभिभावकों से दूर रखने का प्रयास करते हैं। वह प्राय: आदर्शवादी बनते हैं और यौन के विषय में जाने की उनकी रुचि निरंतर बढ़ती रहती है। किशोर के विकास का यह चरण प्रयोग और साहस से भरा होता है। प्रत्येक किशोर अपने से विपरीत लिंग और समवाय समूहों से सम्बन्ध रखना चाहता है। किशोर इस चरण में समाज में अपने अस्तित्व को जानना चाहता है और समाज को अपना योगदान देना चाहता है। किशोर की मानसिकता इस स्थिति में और अधिक जटिल बन जाती है। उसकी भावना गहरी और घनिष्ट हो जाती है और उनमें निर्णय लेने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

ग)       किशोरावस्था का अंतिम चरण
किशोरावस्था के इस चरण में अप्रधान यौन लक्षण भली प्रकार से विकसित हो जाते हैं और यौन अंग प्रौढ़ कार्यकलाप में भी सक्षम हो जाते हैं। किशोर समाज में अपनी अलग पहचान और स्थान की आकांशा रखता है। उनकी यह पहचान बाहरी दुनिया के वास्तविक दृश्य से अलग ही होती है। इस समय उनका समवाय समूह कम महत्व रखता है क्योंकि अब मित्रों के चयन की प्रवृति अधिक होती है।

किशोर इस समय अपने जीवन के लक्ष्य को समक्ष रखता है। हालांकि आर्थिक रूप से वह कई वर्षों तक अभिभावक पर ही निर्भर करता है। इस चरण में किशोरे सही व गलत मूल्यों की पहचान करता है तथा उसके अन्दर नैतिकता इत्यादि भावनाओं का विकास होता है। इस समय किशोर अपना भविष्य बनाने के अभिलाषी होते हैं। उपयुक्त कार्य के लिए वे अभिभावकों एवं समाज का समर्थन चाहते हैं ताकि उनके द्वारा उपेक्षित कार्यों का सम्पादन हो।

Wednesday, June 16, 2010

किशोरावस्था की प्रवृतियां एवं लक्षण

 मानव विकास की चार अवस्थाएं मानी गयी हैं बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था और प्रौढावस्था। यह विकास शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप में होता रहता है। किशोरावस्था सबसे अधिक परिवर्तनशील अवधी है। किशोरावस्था के निम्लिखित महत्वपूर्ण लक्षण इसकी अन्य अवस्थाओं से भिन्नता को प्रकट करते हैं-

क)   शारीरिक परिवर्तन
किशोरावस्था में तीव्रता से शारीरिक विकास और मानसिक परिवर्तन होते हैं। विकास की प्रक्रिया के कारण अंगों में भी परिवर्तन आता है, जो व्यक्तिगत प्रजनन परिपक्वता को प्राप्त करते हैं। इनका सीधा सम्बन्ध यौन विकास से है।

ख)   मनौवैज्ञानिक परिवर्तन
किशोरावस्था मानसिक, भौतिक और भावनात्मक परिपक्वता के विकास की भी अवस्था है। एक किशोर, छोटे बच्चे की तरह किसी दूसरे पर निर्भर रहने की उपेक्षा, प्रौढ़ व्यक्ति की तरह स्वतंत्र रहने की इच्छा प्रकट करता है। इस समय किशोर पहली बार तीव्र यौन इच्छा का अनुभ करता है, इसी कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित रहता है। इस अवस्था में किशोर मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है यह अवस्था अत्यंत संवेदनशील मानी गयी है।

ग)   सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन
किशोरों में सामजिक-सांस्कृतिक मेलजोल के फलस्वरूप कुछ और परिवर्तन भी आते हैं। सामान्यता: समाज किशोरों की भूमिका को निश्चित रूप में परिभाषित नहीं करता। फलस्वरूप किशोर बाल्यावस्था और प्रौढावस्था के मध्य अपने को असमंजस की स्थिति में पाते हैं। उनकी मनौवैज्ञानिक आवश्यकताओं को समाज द्वार महत्व नहीं दिया जाता, इसी कारण उनमें क्रोध, तनाव एवं व्यग्रता की प्रवृतिया उत्पन्न होती हैं। किशोरावस्था में अन्य अवस्थाओं की उपेक्षा उत्तेजना एवं भावनात्मकता अधिक प्रबल होती है।

 

Tuesday, June 15, 2010

किशोरावस्था की समस्याएं

 किशोरावस्था एक ऐसी संवेदनशील अवधि है जब व्यक्तित्व में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। वे परिवर्तन इतने आकस्मिक और तीव्र होते हैं कि उनसे कई समस्याओं का जन्म होता है। यघपि किशोर इन परिवर्तनों को अनुभव तो करते हैं पर वे प्राय: इन्हें समझने में असमर्थ होते हैं। अभी तक उनके पास कोई ऐसा स्रोत उपलब्ध नहीं है जिसके माध्यम से वे इन परिवर्तनों के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त कर सकें। किन्तु उन्हें इन परिवर्तनों और विकास के बारे में जानकारी चाहिए, इसलिये वे इसके लिए या तो सम-आयु समूह की मदद लेते हैं, या फिर गुमराह करने वाले सस्ते साहित्य पर निर्भर हो जाते हैं। गलत सूचनाएं मिलने के कारण वे अक्सर कई भ्रांतियों का शिकार हो जाते हैं जिससे उनके व्यक्तित्व विकास पर कुप्रभाव पड़ता है।

किशोरों को इसलिये भी समस्याएं आते है क्योंकि वे विपरीत लिंग के प्रति एकाएक जाग्रत रुचि को ठीक से समझ नहीं पाने। माँ बाप से दूर हटने की प्रवृति और सम-आयु समूह के साथ गहन मेल-मिलाप भी उनके मन में संशय और चिंता पैदा करता है। किन्तु परिजनों के उचित मार्गदर्शन के अभाव में उन्हें सम-आयु समूह की ही ओर उन्मुख होना पड़ता है। प्राय: देखा गया है कि किशोर सम-आयु समूह के दबाव के सामने विवश हो जाते हैं और उन में से कुछ तो बिना परिणामों को सोचे अनुचित कार्य करने पर मजबूर हो जाते हैं। कुछ सिगरेट, शराब, मादक द्रव्यों का सेवन करने लगते हैं और कुछ यौनाचार की ओर भी आकर्षित हो जाते हैं और इस सब के पीछे सम-आयु समूह का दबाव आदि कई कारण हो सकते हैं।

Monday, June 14, 2010

किशोरावस्था की परिभाषा

किशोरावस्था शब्द अंग्रजी भाषा के Adolescence शब्द का हिंदी पर्याय है। Adolescence शब्द का उद्भव लेटिन भाषा से माना गया है जिसका सामान्य अर्थ है बढ़ाना या विकसित होना। बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था तक के महत्वपूर्ण परिवर्तनों जैसे शारीरिक, मानसिक एवं अल्पबौधिक परिवर्तनों की अवस्था किशोरावस्था है। वस्तुतः किशोरावस्था यौवानारम्भ से परिपक्वता तक वृद्धि एवं विकास का काल है। 10 वर्ष की आयु से 19 वर्ष तक की आयु के इस काल में शारीरिक तथा भावनात्मक सरूप से अत्यधिक महवपूर्ण परिवर्तन आते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 13 से 18 वर्ष के बीच की अवधि मानते हैं, जबकि कुछ की यह धारणा है कि यह अवस्था 24 वर्ष तक रहती है। लेकिन किशोरावस्था को निश्चित अवधि की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। यह अवधि तीव्र गति से होने वाले शारीरिक परिवर्तनों विशेषतया यौन विकास से प्रारंभ हो कर प्रजनन परिपक्वता तक की अवधि है। विश्व स्वस्था संगठन के अनुसार यह गौण यौन लक्षणों (यौवानारम्भ) के प्रकट होने से लेकर यौन एवं प्रजनन परिपक्वता की ओर अग्रसर होने का समय है जब व्यक्ति मानसिक रूप से प्रौढ़ता की ओर अग्रसर होता है और वह सामाजिक व आर्थिक दृष्टी से उपेक्षाकृत आत्मा-निर्भर हो जाता है जिससे समाज में अपनी एक अलग पहचान बनती है।

किशोरावस्था तीव्र शारीरिक भावनात्मक और व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों का काल है। यह परिवर्तन शरीर में उत्पन्न होने वाले कुछ हारमोंस के कारण आते हैं जिनके परिणाम स्वरुप कुछ एक ग्रंथियां एकाएक सक्रिय हो जाती है। ये सब परिवर्तन यौन विकास के साथ सीधे जुड़े हुए हैं क्योंकि इस अवधि में गौण यौन लक्षणों के साथ-साथ बहुत महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते हैं। किशोर बात-बात में अपनी अलग पहचान का आग्रह करते हैं और एक बच्चे की तरह माता-पिता पर निर्भर रहने की उपेक्षा एक प्रौढ़ की तरह स्वतंत्र रहना चाहते हैं। वे अपने माता-पिता से थोड़ा दूरी बनाना शुरू कर देते हैं और अपने सम-आयु समूह (Pear Group) में ही अधिकतर समय व्यतीत करने लगते हैं। यौन-उर्जस्विता के कारण वे विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होते हैं। इस प्रकार किशोरावस्था का मानव  जीवन में एक विशिष्ट स्थान है।

Sunday, June 13, 2010

किशोरावस्था शिक्षा जरूरी क्यों?

किशोरावस्था शिक्षा विद्यार्थियों के किशोरावस्था के बारे में जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में उभरी एक नवीन शिक्षा का नाम है। किशोरावस्था जो कि बचपन और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है, को मानवीय जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्ती के अंत में ही मिला पायी। हजारों सालों तक मानव विकास की केवल तीन अवस्थाएं - बचपन, युवावस्था और बुढ़ापा ही मानी जाती रही है। कृषि प्रधान व ग्रामीण संस्कृति वाले भारतीय व अन्य समाजों में यह धारणा है कि व्यक्ति बचपन से सीधा प्रौढावस्था में प्रवेश करता है। अभी तक बच्चों को छोटी आयु में ही प्रौढ़ व्यक्तियों के उत्तरदायित्व को समझने और वहां करने पर बाध्य किया जाता रहा है। युवक पौढ पुरुषों के कामकाज में हाथ बंटाते रहे हैं और लडकियां घर के। बाल विवाह की कुप्रथा तो बच्चों को यथाशीग्र प्रौढ़ भूमिका में धकेल देती रही है। विवाह से पूर्व या विवाह होते ही बच्चों को यह जाने पर बाध्य किया जाता रहा है कि वे प्रौढ़ हो गए हैं।

लेकिन अब कई नवीन सामाजिक और आर्थिक धारणाओं की वजह से स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है। शिक्षा और रोजगार के बढ़ते हुए अवसरों के कारण विवाह करने की आयु भी बढ़ गयी है। ज्यादा से ज्यादा बच्चे घरों और कस्बों से बाहर निकल कर प्राथमिक स्तर से आगे शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनमें से अधिकतर शिक्षा व रोजगार की खोज में शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। देश के अधिकतर भागों में बाल विवाह की घटनाएं न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी है। लडकियां भी बड़ी संख्या में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। जिसके फलस्वरूप वे भी शीग्र ही वैवाहिक बंधन में बंधना नहीं चाहतीं। इस मानसिक परिवर्तन में संचार माध्यमों की भी महती भूमिका रही है। एक ओर विवाह की आयु में वृद्धि हो गयी है और दूसरी ओर बच्चों में बेहतर स्वास्थ और पोषण सुविधाओं के कारण यौवानारम्भ निर्धारित आयु से पहले ही हो जाता है। इन परिवर्तनों के कारण बचपन और प्रौढावस्था में काफे अंतर पढ़ गया है। इस कारण अब व्यक्ति की आयु में एक ऐसी लम्बी अवधि आती है जब उसे न तो बच्चा समझा जाता है और न ही प्रौढ़ का दर्जा दिया जाता है। जीवन के इसी काल को किशोरावस्था कहते हैं।

किशोरावस्था की परिभाषा
किशोरावस्था की समस्याएँ
किशोरावस्था की प्रवृतियां एवं लक्षण
व्यवहारिक परिवर्तन
शारीरिक विकास
गर्भधारण अथवा गर्भावस्था
सामाजिक सांस्कृतिक विकास और किशोरावस्था
प्रौढ़ों का किशोरावस्था के प्रति दृष्टिकोण
किशोरावस्था शिक्षा की आवश्यकता
किशोरावस्था शिक्षा क्या है?

गाँव के परिवार में महिलाओं का दर्जा

महिलाएं सिर्फ बच्चों को पैदा करने और पालने के कार्यों के लिए पहचानी जाती है। इस दर्जे के कारण ही महिलाओं का दर्जा नीचा होता है। आदिवासी समुदाओं में भी संस्कृति में बदलाव आने से महिलाओं का दर्जा जो दुल्हन मूल्य की वजह से ऊंचा था अब धीरे-धीरे घटता जा रहा है।

1.  परिवार में लड़कियों को कुछ सालों के लिए रखा जाता है। इस समय के दौरान उसे अपने अगले घर- अपने पति के घर के लिए तैयार किया जाता है। उसकी इस जिन्दगी की तैयारी का मुख्य अंश है, उसे अपने पति के घर में सभी कार्यों को करने की शिक्षा।

2.  वह अपने परिवार पर बोझ मानी जाती है। उसके पालने- पोसने के खर्चों के अलावा उसे दहेज़ दिया जाता है। रकम या अन्य सामानों के रूप में- यह उसके पति को खुश करने के लिए है ताकि वह उसे अपनी पत्नी का सम्मान दे सके (आदिवासियों में भी दुल्हन अब दुल्हन मूल्य का स्थान ले रहा है। )

3.  लडकी परिवार की आमदनी पर बोझ मानी जाती है और वह एक कमाऊ सदस्य की भूमिका में कभी नहीं पहचानी जाती है।

4.  इसलिए जब लडकी बच्चे का जन्म होता है तो गम होता है।

5.  बचपन से ही लडकी सीख लेती है की उसका जन्म अनचाहा है और उस पर बुरा असर होता है क्योंकि वह फिर सभी महिलाओं को नीचे दर्जे से देखती है।

लड़कियों के स्वास्थ की स्थिति
लड़कियों के ज़िंदा रहने के मौके लड़कों से कम है। परवाह न करने पर जन्म के तुरंत बाद स्त्री बच्चियों की मौत होती है। दूध पिलाने के रोकने से केई स्त्री बच्चियां अपर्याप्त पोषण की बीमारियों से मर जाती है।

जब लडकी बच्ची बीमार होती है तो गरीब माँ-बाप उसके इलाज पर पैसा खर्च नहीं करेंगे। अगर लड़का बच्चा बीमार होता है तो वही माँ-बाप पैसा उधार ले कर उसका इलाज करवाएंगे। अपर्याप्त पोषण पाने पर स्त्री बच्चियों का शारीरिक विकास धीमा होता है। अगर बच्ची जन्म के बाद बच भी जाती है तो वह हेमशा बीमार रहती है।

लडकी को हमेशा भाइयों से कम खाना दिया जाता है। अगर खाना कम है तो उसे खाने को कुछ नहीं दिया जाता परन्तु लड़कों को खाना दिया जाता है।

उसे अपने भाइयों और छोटे बच्चों की देखभाल करनी होती है और अक्सर उसे आराम करने का समय नहीं मिलता है। स्त्री बच्चों में तपे दिक् एक सामान्य बीमारी है।
हड्डियों की बीमारी और पर्याप्त पोषण की बीमारियाँ स्त्री बच्चियों में ज्यादा है।

यौवन में कदम रखने पर या उसके बाद उन्हें खून की कमी की शिकायत रहती है।

इससे उसकी माहवारी के आरम्भ होने में देर हो सकती है और इसका बुरा असर हो सकता है खासकर अगर उसके माता-पिता उसकी शादी करने या गौना करने के लिए माहवारी के इंतज़ार में है।

बाल-विवाह अभी भी प्रचलित है। लडकियां बचपन से ही बाल-विधवा हो जाती है और ऐसा होने पर वे दोबारा विवाह नहीं कर सकती है।

लड़कियों के लिए कम शिक्षा
अगर स्कूल की व्यवस्था है तो भी लड़की को या तो स्कूल ही भेजा नहीं जाता है या बहुत ही कम सालों के लिए भेजा जाता है क्योंकि औपचारिक शिक्षा विवाह की तैयारी नहीं मानी जाती है। लड़कों को स्कूल भेजा जाता है।
अनपढ़ रहने पर महिलाओं को मर्दों के मुकाबले बुद्धिमान नहीं समझा जाता है।

विवाह के मकसद
विवाह करने के लिए प्रेम मकसद नहीं रहता है, प्रेम बहुत कम ही शादी में विकसित होती है परन्तु एक कर्त्तव्य की भावना जरूर विकसित होती है।

विवाह करने के मकसद हैं :
1.  पुरुषों की सहवासी इच्छाओं को पूरा करना।
2.  बच्चे पैदा करना, खासकर लड़के बच्चे।
3.  दहेज़ के लालच के लिए।
4.  घर के कामों में अपनी सास के साथ हाथ बताना।
5.  घर के बुजुर्ग महिला का समुदाय में नाम ऊंचा होता है। अगर उसके शादी-शुदा बेटे और बहु हो।

पति पत्नी के बीच कम बातचीत
पति-पत्नी के बीच साथी होने का रिश्ता बहुत ही कम होता है या होता ही नहीं।
पति अपंनी पत्नी से ज्यादा पाने माँ-बाप और अपने परिवार के अन्य सदस्यों से लगाव रखते हैं।
महिला कभी भी अपने पति के बराबर नहीं हो सकती है।

पति का दबाव
पति का दबाव हर मामलों में होता है खासकर सहवासी रिश्तों में। महिलाओं को पति की शारीरिक जरूरतों के अनुसार और इसी जरूरत की पूर्ती के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है।
पति का अपनी पत्नी की जिन्दगी और शरीर पर पूरा काबू होता है।

निर्णय लेने का अधिकार
महिला के पास कोइ भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता है। यहाँ तक अपने शरीर के इस्तेमाल में भी नहीं।

अवकाश का समय
महिलाओं को सुबह से शाम तक काम करना होता है। उनका घर का काम होता है- सुबह उठना( जहाँ लेटरीन की व्यवस्था नहीं है महिलाओं को दिन के उजाले से पहले खेतों में जाना पड़ता है जब कोइ उन्हें देख नहीं सकता )। आकर चूला जलाहा है, पानी लाना है, खाना पकाना है, बर्तन साफ़ करना है, गाय-भैस को साफ़ करके उन्हें चारा देना है अपने खेतों पर काम करना है, चूल्हे की  लकड़ी लानी है बच्चों को खाना खिलाना है इत्यादि। इन सब कामों के लिए उन्हें मजदूरी नहीं मिलती है। महिलाओं के अवकाश के लिए कोइ समय नहीं मिलता।

बीमारी के दौरान, गर्भ के समय और बच्चे के जन्म के बाद भी महिआलों को कोई भी आराम नहीं मिलता है।

अगर महिलायें भूमिहीन मजदूर का काम कर रही हैं, तो अक्सर मर्दों से कम मजदूरी पाती हैं और उन्हें घर का भी पूरा काम संभालना पड़ता है। मर्दों के पास अवकाश के लिए बहुत समय होता है।

महिलाओं की भूमिका
महिलाओं की ख़ास भूमिका है -बच्चों को पैदा करना, बच्चों को पालना और पति की इच्छा के अनुसार सहवास करने के लिए तैयार होना है चाहे इसका नतीजा एक अनचाहा गर्भ ही क्यों न हों।

अगर पत्नी बीमार है और सहवास में भाग नहीं ले सकती तो उसके पति को पूरी आजादी है की वह अगर चाहे तो दूसरी पत्नी/ रखैल रख सकता है।

जब महिला उम्र से पहले वृद्ध नजर आती है तो उसका पति जवान पत्नी की खोज में लग जाता है। अपनी सहवासी कामना इच्छाओं की पूर्ती पाना वह अपना हक़ मानता है।

जब महिला बच्चे को जन्म देती है तो अगले गर्भ को कुछ समय के लिए टाले की जिम्मेदारी महिला की ही होती  है। दुखी और लाचार हो कर महिलायें कई हानिकारक तरीकों से अपना गर्भपात करवाती हैं, जडी-बूटी या नीम की डालियों से जिससे महिलाओं को अनेक स्वास्थ समस्याओं का और कभी कभी मृत्यु का सामना करना पड़ता है।

पुरुष लड़के  बच्चे चाहते हैं। अगर जन्मा हुआ बच्चा लडकी है तो महिला को दोषी ठहराया  जाता है। उसकी ख़ास भूमिका है बच्चे पैदा करना।

अगर महिला कोई लड़के को जन्म नहीं देती है तो पुरुष वह अपना हक़ समझता है की दूसरी पत्नी लाये जो उसे एक लड़का दे सके।

महिलाओं की स्वस्थ संबंधी जरूरतें
जब महिलायें बीमार होती हैं, तब अगर गाँव के अन्दर या पास में कोई स्वास्थ व्यवस्था नहीं है तब महिलाओं को मजबूर होकर खराब स्वस्थ को सहना पड़ता है क्योंकि या तो उनके पास अस्पताल-सफ़र का खर्च नहीं होता है या दूर चलकर जाने के लिए समय नहीं होता है। महिलाएं थकावट या खराब स्वास्थ  की शिकायत नहीं कर सकती हैं।

कम उम्र में शादी का असर
लड़कियों की शादी जल्द ही कर दी जाती है, 13 -15 साल, पहली माहवारी के तुरंत बाद जब लड़कियां शारीरिक रूप से अभी तैयार नहीं होती है। पहली माहवारी शारीरिक तैयारी का लक्षण नहीं है। विकास अभी भी जारी है। लडकियां जो यौवन में कदम रखती है उसका प्रजनन अंगों में विकास जारी रहता है।

लडकियां इस समय विकास के लिए तैयार नहीं होती है और सहवास उनके लिए एक दर्दनाक अनुभव होता है उनकी योनि का पूर्ण विकास नहीं होता है और चौडाई न पाने पर और दर के कारण सहवास के समय पूर्ण रूप से खुल नहीं पाती है इससे सहवास बहुत ही दर्दनाक होता है और योनि में भी चोट पहुँचती है।

जवान दुल्हन का गर्भवती होने का दबाव रहता हा जिससे वह अपनी प्रजनन शक्ति को दर्शित कर सके।

अक्सर शारीरिक विकास की अपूर्णता के कारण इसमें समय लग जाता है। इस दौरान लड़की को बाँझ कहलाकर उसे दुःख दिया जाता है।

(अगर एक साल के बाद गर्भ नहीं ठहरता है तो नयी दुल्हन की खोज शुरू हो जाती है।)

छोटी उम्र में गर्भधारण और बच्चे के जन्म का असर
पहली महावारी लक्षण नहीं है की लडकी शारीरिक रूप से विकसित हो गयी है और गर्भवती हो सकती है और बच्चे के जन्म व माँ बनने के लिए तैयार है।

1.  अगर इन जवान लड़कियों में गर्भ धारण भी हो जाता है तो प्रजनन अंगों - बच्चादानी का विकास होने पर गर्भपात होने का ख़तरा रहता है। यह गर्भपात एक दर्दनाक अनुभव है।

2.   कम उम्र में गर्भ रहने से कम वजन के बच्चो का जन्म होता है। इस कारण यही है की माँ का शारीरिक विकास पूरा नहीं हुआ है। और माँ के विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए एवं कोख में बच्चे के विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए पोषण पर्दार्थ अपूर्ण हैं। (इस उम्र में महिलाओं को पोषण पदार्थों की जरूरते बीस साल से ज्यादा महिलाओं से अधिक है )

3.   कम वजन के बच्चों का ज़िंदा रहने के मौके  कम हैं, सर्दी गर्मी इत्यादि के कारण इन बच्चों की अक्सर मौत हो जाती है।

4.  जवान माँ अपने कम वजन के कमजोर बच्चे की सही देखभाल नहीं कर पाती है।

5.   अगर जवान महिला बच्चे के जन्म के लिए अपनी माँ के घर जाती है तो उसे अपने बच्चे के जन्म के दौरान दर्द उठने पर, जन्म के दौरान बच्चे को दूध पिलाने समय माँ का सहारा मिल जाता है एवं इस समय सही आराम भी मिल पाता है। गरीब समुदायों में परम्परा के अनुसार भारत के मध्य और उत्तर भागों में दुल्हन अपने पहले जन्म के लिए अपनी माँ के घर नहीं जाती है इसी कारण गर्भ के दौरान और बच्चे के जन्म के दौरान दबाव ज्यादा रहता है।

6.   बच्चों का जन्म दाईयों के हाथों द्वारा होता है। इसमें ख़तरा रहता है क्योंकि शरीर अविकसित होने के कारण समस्याएं ज्यादा उत्पन्न होती हैं इस कारण बीस साल से कम उम्र की महिलाओं की बच्चे के जन्म के दौरान मृत्यु दर ज्यादा है।

7.   अगर महिला लडकी की बच्चे को जन्म देती है तो उसके कोई सहारा नहीं मिलता है बल्कि अपने ससुराल से कई तानों व अत्याचारों को सहना पड़ता है खासकर अपने सास की ओर से।

8.   बच्चे को दूध पिलाना एक समस्या बन जाती है क्योंकि
 - शरीर पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता है।
 - शरीर में जरूरी तत्वों की कमी है।
 - अपर्याप्त पोषण प्राप्त होता है और अपने परिवार में सही सहारा प्राप्त नहीं होता है।

9.   यौवन के समय खून की कमी होने पर कमजोरी बढ़ती है और इसी कारण शरीर में भी दूध की कमी होती है।