Sunday, June 13, 2010

गाँव के परिवार में महिलाओं का दर्जा

महिलाएं सिर्फ बच्चों को पैदा करने और पालने के कार्यों के लिए पहचानी जाती है। इस दर्जे के कारण ही महिलाओं का दर्जा नीचा होता है। आदिवासी समुदाओं में भी संस्कृति में बदलाव आने से महिलाओं का दर्जा जो दुल्हन मूल्य की वजह से ऊंचा था अब धीरे-धीरे घटता जा रहा है।

1.  परिवार में लड़कियों को कुछ सालों के लिए रखा जाता है। इस समय के दौरान उसे अपने अगले घर- अपने पति के घर के लिए तैयार किया जाता है। उसकी इस जिन्दगी की तैयारी का मुख्य अंश है, उसे अपने पति के घर में सभी कार्यों को करने की शिक्षा।

2.  वह अपने परिवार पर बोझ मानी जाती है। उसके पालने- पोसने के खर्चों के अलावा उसे दहेज़ दिया जाता है। रकम या अन्य सामानों के रूप में- यह उसके पति को खुश करने के लिए है ताकि वह उसे अपनी पत्नी का सम्मान दे सके (आदिवासियों में भी दुल्हन अब दुल्हन मूल्य का स्थान ले रहा है। )

3.  लडकी परिवार की आमदनी पर बोझ मानी जाती है और वह एक कमाऊ सदस्य की भूमिका में कभी नहीं पहचानी जाती है।

4.  इसलिए जब लडकी बच्चे का जन्म होता है तो गम होता है।

5.  बचपन से ही लडकी सीख लेती है की उसका जन्म अनचाहा है और उस पर बुरा असर होता है क्योंकि वह फिर सभी महिलाओं को नीचे दर्जे से देखती है।

लड़कियों के स्वास्थ की स्थिति
लड़कियों के ज़िंदा रहने के मौके लड़कों से कम है। परवाह न करने पर जन्म के तुरंत बाद स्त्री बच्चियों की मौत होती है। दूध पिलाने के रोकने से केई स्त्री बच्चियां अपर्याप्त पोषण की बीमारियों से मर जाती है।

जब लडकी बच्ची बीमार होती है तो गरीब माँ-बाप उसके इलाज पर पैसा खर्च नहीं करेंगे। अगर लड़का बच्चा बीमार होता है तो वही माँ-बाप पैसा उधार ले कर उसका इलाज करवाएंगे। अपर्याप्त पोषण पाने पर स्त्री बच्चियों का शारीरिक विकास धीमा होता है। अगर बच्ची जन्म के बाद बच भी जाती है तो वह हेमशा बीमार रहती है।

लडकी को हमेशा भाइयों से कम खाना दिया जाता है। अगर खाना कम है तो उसे खाने को कुछ नहीं दिया जाता परन्तु लड़कों को खाना दिया जाता है।

उसे अपने भाइयों और छोटे बच्चों की देखभाल करनी होती है और अक्सर उसे आराम करने का समय नहीं मिलता है। स्त्री बच्चों में तपे दिक् एक सामान्य बीमारी है।
हड्डियों की बीमारी और पर्याप्त पोषण की बीमारियाँ स्त्री बच्चियों में ज्यादा है।

यौवन में कदम रखने पर या उसके बाद उन्हें खून की कमी की शिकायत रहती है।

इससे उसकी माहवारी के आरम्भ होने में देर हो सकती है और इसका बुरा असर हो सकता है खासकर अगर उसके माता-पिता उसकी शादी करने या गौना करने के लिए माहवारी के इंतज़ार में है।

बाल-विवाह अभी भी प्रचलित है। लडकियां बचपन से ही बाल-विधवा हो जाती है और ऐसा होने पर वे दोबारा विवाह नहीं कर सकती है।

लड़कियों के लिए कम शिक्षा
अगर स्कूल की व्यवस्था है तो भी लड़की को या तो स्कूल ही भेजा नहीं जाता है या बहुत ही कम सालों के लिए भेजा जाता है क्योंकि औपचारिक शिक्षा विवाह की तैयारी नहीं मानी जाती है। लड़कों को स्कूल भेजा जाता है।
अनपढ़ रहने पर महिलाओं को मर्दों के मुकाबले बुद्धिमान नहीं समझा जाता है।

विवाह के मकसद
विवाह करने के लिए प्रेम मकसद नहीं रहता है, प्रेम बहुत कम ही शादी में विकसित होती है परन्तु एक कर्त्तव्य की भावना जरूर विकसित होती है।

विवाह करने के मकसद हैं :
1.  पुरुषों की सहवासी इच्छाओं को पूरा करना।
2.  बच्चे पैदा करना, खासकर लड़के बच्चे।
3.  दहेज़ के लालच के लिए।
4.  घर के कामों में अपनी सास के साथ हाथ बताना।
5.  घर के बुजुर्ग महिला का समुदाय में नाम ऊंचा होता है। अगर उसके शादी-शुदा बेटे और बहु हो।

पति पत्नी के बीच कम बातचीत
पति-पत्नी के बीच साथी होने का रिश्ता बहुत ही कम होता है या होता ही नहीं।
पति अपंनी पत्नी से ज्यादा पाने माँ-बाप और अपने परिवार के अन्य सदस्यों से लगाव रखते हैं।
महिला कभी भी अपने पति के बराबर नहीं हो सकती है।

पति का दबाव
पति का दबाव हर मामलों में होता है खासकर सहवासी रिश्तों में। महिलाओं को पति की शारीरिक जरूरतों के अनुसार और इसी जरूरत की पूर्ती के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है।
पति का अपनी पत्नी की जिन्दगी और शरीर पर पूरा काबू होता है।

निर्णय लेने का अधिकार
महिला के पास कोइ भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता है। यहाँ तक अपने शरीर के इस्तेमाल में भी नहीं।

अवकाश का समय
महिलाओं को सुबह से शाम तक काम करना होता है। उनका घर का काम होता है- सुबह उठना( जहाँ लेटरीन की व्यवस्था नहीं है महिलाओं को दिन के उजाले से पहले खेतों में जाना पड़ता है जब कोइ उन्हें देख नहीं सकता )। आकर चूला जलाहा है, पानी लाना है, खाना पकाना है, बर्तन साफ़ करना है, गाय-भैस को साफ़ करके उन्हें चारा देना है अपने खेतों पर काम करना है, चूल्हे की  लकड़ी लानी है बच्चों को खाना खिलाना है इत्यादि। इन सब कामों के लिए उन्हें मजदूरी नहीं मिलती है। महिलाओं के अवकाश के लिए कोइ समय नहीं मिलता।

बीमारी के दौरान, गर्भ के समय और बच्चे के जन्म के बाद भी महिआलों को कोई भी आराम नहीं मिलता है।

अगर महिलायें भूमिहीन मजदूर का काम कर रही हैं, तो अक्सर मर्दों से कम मजदूरी पाती हैं और उन्हें घर का भी पूरा काम संभालना पड़ता है। मर्दों के पास अवकाश के लिए बहुत समय होता है।

महिलाओं की भूमिका
महिलाओं की ख़ास भूमिका है -बच्चों को पैदा करना, बच्चों को पालना और पति की इच्छा के अनुसार सहवास करने के लिए तैयार होना है चाहे इसका नतीजा एक अनचाहा गर्भ ही क्यों न हों।

अगर पत्नी बीमार है और सहवास में भाग नहीं ले सकती तो उसके पति को पूरी आजादी है की वह अगर चाहे तो दूसरी पत्नी/ रखैल रख सकता है।

जब महिला उम्र से पहले वृद्ध नजर आती है तो उसका पति जवान पत्नी की खोज में लग जाता है। अपनी सहवासी कामना इच्छाओं की पूर्ती पाना वह अपना हक़ मानता है।

जब महिला बच्चे को जन्म देती है तो अगले गर्भ को कुछ समय के लिए टाले की जिम्मेदारी महिला की ही होती  है। दुखी और लाचार हो कर महिलायें कई हानिकारक तरीकों से अपना गर्भपात करवाती हैं, जडी-बूटी या नीम की डालियों से जिससे महिलाओं को अनेक स्वास्थ समस्याओं का और कभी कभी मृत्यु का सामना करना पड़ता है।

पुरुष लड़के  बच्चे चाहते हैं। अगर जन्मा हुआ बच्चा लडकी है तो महिला को दोषी ठहराया  जाता है। उसकी ख़ास भूमिका है बच्चे पैदा करना।

अगर महिला कोई लड़के को जन्म नहीं देती है तो पुरुष वह अपना हक़ समझता है की दूसरी पत्नी लाये जो उसे एक लड़का दे सके।

महिलाओं की स्वस्थ संबंधी जरूरतें
जब महिलायें बीमार होती हैं, तब अगर गाँव के अन्दर या पास में कोई स्वास्थ व्यवस्था नहीं है तब महिलाओं को मजबूर होकर खराब स्वस्थ को सहना पड़ता है क्योंकि या तो उनके पास अस्पताल-सफ़र का खर्च नहीं होता है या दूर चलकर जाने के लिए समय नहीं होता है। महिलाएं थकावट या खराब स्वास्थ  की शिकायत नहीं कर सकती हैं।

कम उम्र में शादी का असर
लड़कियों की शादी जल्द ही कर दी जाती है, 13 -15 साल, पहली माहवारी के तुरंत बाद जब लड़कियां शारीरिक रूप से अभी तैयार नहीं होती है। पहली माहवारी शारीरिक तैयारी का लक्षण नहीं है। विकास अभी भी जारी है। लडकियां जो यौवन में कदम रखती है उसका प्रजनन अंगों में विकास जारी रहता है।

लडकियां इस समय विकास के लिए तैयार नहीं होती है और सहवास उनके लिए एक दर्दनाक अनुभव होता है उनकी योनि का पूर्ण विकास नहीं होता है और चौडाई न पाने पर और दर के कारण सहवास के समय पूर्ण रूप से खुल नहीं पाती है इससे सहवास बहुत ही दर्दनाक होता है और योनि में भी चोट पहुँचती है।

जवान दुल्हन का गर्भवती होने का दबाव रहता हा जिससे वह अपनी प्रजनन शक्ति को दर्शित कर सके।

अक्सर शारीरिक विकास की अपूर्णता के कारण इसमें समय लग जाता है। इस दौरान लड़की को बाँझ कहलाकर उसे दुःख दिया जाता है।

(अगर एक साल के बाद गर्भ नहीं ठहरता है तो नयी दुल्हन की खोज शुरू हो जाती है।)

छोटी उम्र में गर्भधारण और बच्चे के जन्म का असर
पहली महावारी लक्षण नहीं है की लडकी शारीरिक रूप से विकसित हो गयी है और गर्भवती हो सकती है और बच्चे के जन्म व माँ बनने के लिए तैयार है।

1.  अगर इन जवान लड़कियों में गर्भ धारण भी हो जाता है तो प्रजनन अंगों - बच्चादानी का विकास होने पर गर्भपात होने का ख़तरा रहता है। यह गर्भपात एक दर्दनाक अनुभव है।

2.   कम उम्र में गर्भ रहने से कम वजन के बच्चो का जन्म होता है। इस कारण यही है की माँ का शारीरिक विकास पूरा नहीं हुआ है। और माँ के विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए एवं कोख में बच्चे के विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए पोषण पर्दार्थ अपूर्ण हैं। (इस उम्र में महिलाओं को पोषण पदार्थों की जरूरते बीस साल से ज्यादा महिलाओं से अधिक है )

3.   कम वजन के बच्चों का ज़िंदा रहने के मौके  कम हैं, सर्दी गर्मी इत्यादि के कारण इन बच्चों की अक्सर मौत हो जाती है।

4.  जवान माँ अपने कम वजन के कमजोर बच्चे की सही देखभाल नहीं कर पाती है।

5.   अगर जवान महिला बच्चे के जन्म के लिए अपनी माँ के घर जाती है तो उसे अपने बच्चे के जन्म के दौरान दर्द उठने पर, जन्म के दौरान बच्चे को दूध पिलाने समय माँ का सहारा मिल जाता है एवं इस समय सही आराम भी मिल पाता है। गरीब समुदायों में परम्परा के अनुसार भारत के मध्य और उत्तर भागों में दुल्हन अपने पहले जन्म के लिए अपनी माँ के घर नहीं जाती है इसी कारण गर्भ के दौरान और बच्चे के जन्म के दौरान दबाव ज्यादा रहता है।

6.   बच्चों का जन्म दाईयों के हाथों द्वारा होता है। इसमें ख़तरा रहता है क्योंकि शरीर अविकसित होने के कारण समस्याएं ज्यादा उत्पन्न होती हैं इस कारण बीस साल से कम उम्र की महिलाओं की बच्चे के जन्म के दौरान मृत्यु दर ज्यादा है।

7.   अगर महिला लडकी की बच्चे को जन्म देती है तो उसके कोई सहारा नहीं मिलता है बल्कि अपने ससुराल से कई तानों व अत्याचारों को सहना पड़ता है खासकर अपने सास की ओर से।

8.   बच्चे को दूध पिलाना एक समस्या बन जाती है क्योंकि
 - शरीर पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता है।
 - शरीर में जरूरी तत्वों की कमी है।
 - अपर्याप्त पोषण प्राप्त होता है और अपने परिवार में सही सहारा प्राप्त नहीं होता है।

9.   यौवन के समय खून की कमी होने पर कमजोरी बढ़ती है और इसी कारण शरीर में भी दूध की कमी होती है।

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